गद्य साहित्य में भारतेंदु हरिश्चंद्र का योगदान
भारतेंदु हरिश्चंद्र
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी। उनका कार्यकाल युग की सन्धि पर खड़ा है।
जन्म: 9 सितंबर 1850, वाराणसी
मृत्यु: 6 जनवरी 1885, वाराणसी
अवधि/काल
विषय: आधुनिक हिंदी साहित्य
आज हम हिंदी गद्य से जो अर्थ समझते हैं-वास्तव में वही खड़ी बोली हिंदी थी , जिसका विकास भारतेंदु काल मैं हो चुका था। कहते हैं , भारतेंदु ने ही हिंदी को अंगुली पकड़कर चलना सिखाया था।
भारतेंदु का जन्म १८५० ई॰ में और मृत्यु १८८५ ई॰ में हुआ था। मात्र 35 वर्ष की उम्र में उन्होंने साहित्य गद्य के रूप में काफी विकास किया था। उन्होंने गद्य , (कहानी) , नाटक , उपन्यास को आगे बढ़ाया था। भारतेंदु युग १८५०-१८५७ से ही राष्ट्र चेतना का उदय साहित्य में हो चुका था। जीवन और समाज में जो नए लक्षण प्रकट हुए थे , उन्होंने सबसे पहले भारतेंदु ने पहचाना था, इसलिए तो उन्हें आहवान किया था :-
“आबहूं सब मिली रोहऊं , भारत भाई ,
हां-हां ....... भारत दुर्दशा देखी ना जाई ।।”
स्पष्ट है कि अपनी जन्मभूमि भारत दुर्दशा पर रोना राष्ट्रीय चेतना का अभिन्न अंग है। इसी चेतना को द्विवेदी युग के कवियों ने और विकसित किया है। इसका कारण यह है कि द्विवेदी युग में ही राष्ट्रीय चेतना विकसित हो चुका था। भारतेंदु ने एक प्रसंग में कहा था :- " स्वत्व निज भारत गहै ”
अर्थात अब भारत की जनता आत्म गौरव प्राप्त करने के लिए स्वतंत्रता का रास्ता बनाने लगी थी।
इसी भावनाओं को द्विवेदी युग में सबसे अधिक आगे बढ़कर सहज और प्रभावशाली ढंग से मैथिलीशरण गुप्त ने व्यक्त किया। उनकी प्रथम कृति “ भारत - भारती ” अकेले इस बात को प्रमाणित करने के लिए प्रयात्प है। इस पुस्तक के मुख्य पृष्ठ पर ही उन्होंने तीखे ढंग से या ऐतिहासिक प्रश्न देश के सामने प्रस्तुत किया है :- हम कौन थे ,
क्या हो गया है , और क्या होंगे अभी ,
आओ विचारे आज मिलकर ये
समस्याएं सभी .................।
उपयुक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि वर्तमान दुर्दशा से असंतुष्ट हुए बिना उज्जवल भविष्य की निर्माण नहीं किया जा सकता है।
भारतेंदु हिंदी गद्य काल के लेखकों नाटक कारो ने उस समय (१८८०) अंधेर नगरी और (१८८५) भारत दुर्दशा नाटकों के आधार पर भारतीयता की परिभाषा स्वदेशी का आंदोलन माना था। उसी समय सामाजिक कुरीतियां , मध्यपान निषेध , गौ हत्या का विरोध , इन सभी तथ्यों पर विचार किया गया था।
निष्कर्षत :- जा सकता है कि , यदि आज भारतेंदु हरिश्चंद्र होते तो हमारे देश का साहित्य और हमारा हिंदी कुछ अलग हासिये पर होता ...........
आज देश की भाषा , रंग भेष-भूषा पर जो बटवारा रहने की समस्या हो रही है , यह समस्या होती ही नहीं .......।
तभी तो सच कहा गया है कि -।
भीतर-भीतर सब रस चूसै
हंसि हंसि के तन मन धन मूसै
जाहिर बातन में अति तेज
क्यों सखि सज्जन नहिं अंग्रेज
प्रेषक
लेखक: मनोज कुमार पोद्दार
(पत्रकार , शिक्षक हिन्दी)