कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास .........

सूरदास हिंदी के पूर्व अविरल कवियों में हिना के गीत महाकाव्य बन गए। जिस समय हिंदू जाति की नस नस में राजनीतिक पराधीनता का जहर भूल चुका था लोग जीवन के प्रति उदासीन और अनास्थावान हो , अपने संकीर्ण दायरे में सिमट तेजा रहे थे और जब चारों ओर निराशा का घना कोहरा जम गया था उस समय सूरदास ने अपने मर मधुर गीतों की रचना कर जीवन के प्रति आस्था जगाई तथा बस्ती और कुंठा को दूर कर मानव हृदय में उत्साह और उमंग को संचार किया। कोई आश्चर्य नहीं , इसीलिए भक्ति काव्य और संगीत के संगम पर बसे उनके गीत आज भी साहित्य के पावन तीर्थराज माने जाते हैं। 
रचनांए -सूरदास के अनेक ग्रंथ बताए जाते हैं पर उनकी प्रमाणिकता संदिग्ध है सुर की प्रमाणिक रचनाएं तीन हैं  :- 
• सूरसागर
•सुरसारावली 
•साहित्यलहरी
सुरसारावली के नाम से स्पष्ट है कि वह सूरसागर का सूची पत्र है इसमें मुनि विषयों का संकेत रूप में वर्णन मिलता है। साहित्य लहरी एक अतिशय शृंगारिक पुस्तक है जिसमें पहेली के रूप में नायिका भेद का कथन किया गया है। वस्तुतः सूरदास का सर्वमान्य और प्रमाणिक ग्रंथ सूरसागर है जो उनकी स्थाई कृतिका आधार स्तंभ है।
अनुश्रुति के अनुसार सूरसागर सवा लाख पदों का संग्रह है पर प्राप्त प्रतियों में 5000 से अधिक पद नहीं मिलते इनमें 12 स्कंध है जिसमें 11 अध्याय में विनय भक्ति तथा विष्णु के अवतारों की चर्चा है। केवल 10 के दो भागों में कृष्ण की लीला विस्तार पूर्वक है पर ध्यान देने की बात यह है कि मात्रा और गुणों दोनों दृष्टि ओं से सूरसागर का तीन चौथाई से अधिक दशम स्कंध में सुरक्षित है। 
सूरदास की भक्ति भावना :-   सूरदास वैष्ण्णव भक्तों की परंपरा मेंं उत्पन्न हुए। वैष्णव समुदाय का मूल सिद्धांत भक्ति भगवान की प्राप्ति ज्ञान से नहीं भक्ति  से हो सकती है - " तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण "  
यदि भगवान जहाज है तो सूरदास का मन पंछी है जिसे भक्ति भगवान अपने मूल रूप में गोदना भगवान अपने मूल रूप मे निर्गुण को छोड़कर और कहीं शरण नहीं मिलती "मेरे मन अनंत कहां सुख पावे जैसे उड़ी जहाज की पंछी पुनी जहाज पर आवे" :- भगवान अपनी मूल रूप में निर्गुण है किंतु भक्तों के लिए शगुन गुण भी ग्रहण करते हैं सूरदास को भगवान का शगुन रूप ही प्रिय है। वैष्णव भक्ति के शैहिंग और शाद भूमिकाएं मानी गई है भगवान के प्रति शाखा अथवा मित्र भाव की भक्ति सूर को अत्यंत प्रिय हैं कृष्ण का चित्रण करते समय कभी सदा इसी भाव से प्रेरित रहा है। गऊघाट की सूरदास भगवान से डरते थे पुष्टिमार्गीय हो जाने पर उनका भी खत्म हो गया। भक्ति का तीसरा प्रकार जिसमें सुरका वह वात्सल्य वाल्मीकि के बाद यदि किसी कवि ने वात्सल्य भाव से तन्मय होकर शिशु के अधरों को परखा उसकी तोतली वाणी को सुना उसकी धूल दूसरे को प्रेम से गदगद होकर देखा तो सूर ने संयोग वर्णन की भांति ही सूर का वियोग वर्णन भी गंभीर तथा  व्यापक है। उनकी विरह वेदना का सबसे उज्जवल रूप हमें भ्रमरगीत में देखने को मिलता है भ्रमरगीत साहित्य का मुकुट मणि है और सूरदास की राधा वह तो आंसुओं का ऐसा ताजमहल है जिसके जोड़ की कृति काव्यात्मक सृष्टि विश्व साहित्य में दुर्लभ है। मिलन के समय चंचल और हंसुर राधिका काबिल के समय एकदम शांत मौन और गंभीर हो जाती है प्रोफेसर रामेश्वर शर्मा के अनुसार""भ्रमरगीत प्रसंग में राधा को पत्थर बना कर सूर ने पत्थर को भी पिघला दिया,"
सूर के प्रेम वर्णन की विशेषता यह है कि उन्होंने प्रेम का विकास अत्यंत स्वभाविक वातावरण में दिखाया है। सूरदास ब्रजभाषा के बाल्मीकि है बोलचाल की भाषा को उत्कृष्ट काव्य भाषा में परिणत करने की क्षमता हिंदी के तीन कवियों में और वह हैं मैथिली में विद्यापति कोमा अवधि में तुलसी और ब्रज भाषा में शुक्र किसी कवि की इससे बड़ी सफलता और क्या होगी कि उनके द्वारा अपनाई गई भाषा बाद की तीन चार सदियों तक काव्य का एकमात्र वाहन वाहन बन गया

भक्ति सूरदास सूरदास की अभिव्यक्ति की कौशल सराहना करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है"सुरजा जब अपनी प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे पीछे दौड़ा करता है आत्माओं की बाढ़ आ जाती है रूप को की वर्षा होने लगती है संगीत के प्रवाह में कवि स्वयं वह जाता है वह अपने आप को भूल जाता है काफी में इतनी तन्मयता के साथ शास्त्री पद्धति का निर्वाह विरल है।"
सूरसागर की रचना_: सूरसागर की रचना गद्य शैली में हुई है उसमें पिंगल के नियमों का अनुसरण नहीं बल्कि संगीत के नाथ सुंदरी का चमत्कार है। प्रोफेसर देवेंद्र नाथ शर्मा ने ठीक ही लिखा है_"एक तो ब्रजभाषा उसमें भी कविता वह भी शूर की और वह भी गे यो
कुछ विद्वान यह मानते हैं कि काफी कला की दृष्टि से नंददास सूरदास से कहीं आगे हैं स्वयं आचार्य शुक्ल ने ह नंददास की प्रांजल
 पर इस कृत्य भाषा की वही प्रशंसा करते हुए कहां है भावों की अनुमानित भाषा के महत्व नंददास के कवित्त का गौरव बतलाते हैं मौलिकता की दृष्टि से सूर सर्वोपरि हैं कोई भी अष्टछाप का कवि उनकी समानता नहीं कर सकता और इसी कारण हुए कृष्ण काव्य धारा के कवियों में मूर्धन्य अस्थान अधिकारी हैं। डॉक्टर ग्रियर्सन के अनुसार " Other poets may have equality him , in same particular quality but the compined the best of all ..........." 
संगीता चारी तानसेन की इस उक्ति में जरा भी अत्युक्ति नहीं है
किधौ सुर को सर लग्यो  , किधौ सूर र्को पीर ।
‌किधौ सुर को पद लग्यो , तन मन धुतन शरीर ।।




                            ‌              प्रस्तुती :- मनोज कुमार पोद्दार 

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